Wednesday, October 7, 2009

नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं


नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं

आंसू पोंछ न पाए अपनी आंखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं

पानी बरस रहा है जंगल गीला है
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं

होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं
-------------------------शेष 'तुम्ही कुछ कहो ना!'ग़ज़ल संग्रह में

3 comments:

  1. पानी बरस रहा है जंगल गीला है
    हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं

    waahhhhh
    bahut hii umda

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  2. is geet ko jinaa padhne mai aababd miltaa hai usse jyadaa mazaa ise kavitaa jee ke mujh se sunne mau miltaa hai

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