Tuesday, December 7, 2010

मेरी सांसों में रु-ब-रु हो जा...(एक सूफीयाना ग़ज़ल पेश है..)


मेरी सांसों में रु--रु हो जा
मेरे जीने की आरज़ू हो जा

हर तरफ तू ही तू दिखाई दे
हर तरफ सिर्फ तू ही तू हो जा

एक दूजे के दोनों हो जाएँ
मैं तेरी और मेरा तू हो जा

खुद को देखूं तो तुझको पा जाऊं
आईना बनके चार सू हो जा

मेरी खामोशियाँ पिघल जाएँ

वो मुहब्बत की गुफ़्तगू हो जा

खुशबुओं की तरह महक उठ्ठूं

मेरे गुलशन की रंगों बू हो जा

जाँ से ज्यादा अजीज़ हो मेरे
मेरी उल्फत की आबरु हो जा

जो अभी तक हो सका कोई
मेरे महबूब! वो ही तू हो जा

इससे पहले मैं ख़त्म हो जाऊं
मेरी जिंदगी! शुरू हो जा

बारगाहे-सनम में जाना है

तो 'किरण'तू भी बा-वज़ू हो जा

*********
डॉ कविता'किरण'



10 comments:

  1. बहुत दिनों बाद आपको पढ़ा ...अच्छा लगा... बड़ी ही प्यारी पंक्तिय्याँ हैं...बिलकुल ही सुन्दर..

    क्या क्या बदल गया है ....

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  2. छोटी बहर में अच्छी रूमानी गज़ल कही है आपने...दाद कबूल फरमाएं...

    नीरज

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  3. इससे पहले मैं ख़त्म हो जाऊं
    ए मेरी जिंदगी! शुरू हो जा
    मेम ! नमस्कार ! ये शेर बहुत कुछ कह देता है , बाकी शेर भी सुंदर है ,
    शुक्रिया !

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  4. बेहद उम्दा प्रस्तुति।

    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (9/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  5. main kahi kavi na ban jau tere pyar me e kavita..

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  6. मर्मस्पर्शी कविता!


    सादर

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  7. खूबसूरती से लिखे एहसास ...

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  8. इस से पहले मै ख़त्म हो जाऊं
    ऐ मेरी जिंदगी शुरू हो जा.

    सुन्दर भावो के साथ बेहद रूमानी रचना ...... लाजवाब

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  9. bahut khoobsurat..........jiyo

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  10. sabhi mitron ka hardik aabhar vyakt karti hun.

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